07-02-76   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन

महारथी की ‘नथिंग-न्यू’ की स्थिति और व्यर्थ के खाते की समाप्ति

बाप-दादा की सहयोगिनी, अथक सेवाधारी, विश्व-कल्याणी दीदी जी से मुलाकात करते हुए शिव बाबा बोले:–

महारथियों के महान् स्थिति की विशेष निशानी, जिससे स्पष्ट हो जाये कि यह महारथी-पन का पुरूषार्थ है, वह क्या होगी? एक तो महान् पुरुषार्थी अर्थात् महारथी जो भी दृश्य देखेंगे, वह समझेंगे - ड्रामा प्लैन अनुसार अनेक बार का अब फिर से रिपीट हो रहा है, वह ‘नथिंग-न्यू’ लगेगा। कोई नई बात अनुभव नहीं होगी जिसमें ‘क्यों’ और ‘क्या’ का क्वेश्चन उठे। और, दूसरा - ऐसे अनुभव होगा जैसे प्रैक्टिकल में, स्मृति-स्वरूप में अनेक बार देखी हुई सीन अब सिर्फ निमित्त मात्र रिपीट कर रहे हैं। कोई नई बात नहीं कर रहे हैं, लेकिन रिपीट कर रहे हैं। स्मृति लानी नहीं पड़ेगी। कल्प पहले जो हुआ था वही अब हो रहा है। लेकिन जैसे एक सेकेण्ड की बीती हुई बात बहुत स्पष्ट रूप से स्मृति में रहती है वैसे वह कल्प पहले की बीती हुई सीन ऐसे ही स्मृति में होगी जैसे कि एक सेकेण्ड पहले बीती हुई सीन स्मृति में रहती है। क्योंकि एक साक्षीपन, दूसरा त्रिकालदर्शी - यह दोनों स्टेज महारथियों की होने के कारण कल्प पहले की स्मृति बिल्कुल फ्रेश व ताज़ी रहेगी। इसलिये नथिंग-न्यू और दूसरा क्या होगा? 

कोई भी कितनी भी विकराल रूप की परिस्थिति हो या बड़े रूप की समस्या हो लेकिन अपनी स्टेज ऊँची होने के कारण वह बिल्कुल छोटी लगेगी। बड़ी बात अनुभव नहीं होगी और न विकराल अनुभव होगी। जैसे ऊँची पहाड़ी पर खड़े होकर नीचे की कोई भी चीज को देखो तो बड़ी चीज़ भी छोटी नजर आती है ना। बड़े से बड़ा कारखाना भी एक मॉडल रूप-सा दिखाई पड़ता है। इसी रीति महारथी के महान् पुरूषार्थ के सामने उसे कोई भी बड़ी बात बड़ी अनुभव नहीं होगी। तो महावीर अर्थात् महारथी के महान् पुरूषार्थ की यह दो निशानियाँ हैं जिसको दूसरे शब्दों में कहा जाता - सूली काँटा अनुभव होगी। ऐसे महावीर के मुख से जो होने वाली रिजल्ट होगी अर्थात् जो होनी होगी, सदैव वही शब्द मुख से निकलेंगे जो भावी बनी हुई होगी। इसको ही ‘सिद्धि-स्वरूप’ कहा जाता है। जो बोल निकलेगा, जो कर्म होगा वह सिद्ध होने वाले होंगे, व्यर्थ नहीं होंगे। महारथी की निशानी है - विकर्मों का खाता तो समाप्त होता ही है लेकिन व्यर्थ का खाता भी समाप्त। मास्टर सर्वशक्तिवान् है ना। तो मास्टर सर्वशक्तिवान् की स्टेज का प्रैक्टिकल स्वरूप विकर्मों के खाते के साथ-साथ व्यर्थ का खाता भी समाप्त होगा। यह है महारथियों के पुरूषार्थ की निशानी। 

नज़र से निहाल करने की सर्विस शुरू की हैं? एक हैं महादानी, दूसरे हैं वरदानी और तीसरे हैं विश्व-कल्याणी। तो यह तीनों ही विशेषताएं एक ही में हैं या कोई विशेषता किसी में है और कोई किसी में? किसी का वरदानी रूप का पूजन है, किसी का विश्व-कल्याणी के रूप में पूजन है। पूजन में अथवा गायन में भी फर्क क्यों है? होंगे तीनों ही लेकिन परसेन्टेज में फर्क होगा। कोई में किसी बात की, अन्य कोई में किसी बात की परसेन्टेज कम अथवा ज्यादा होगी। 

एक है कर्मों की गति, दूसरी है प्रालब्ध की गति और तीसरी फिर है गायन और पूजन की गति। जैसे कर्मों की गति गुह्य है वैसे इन दोनों की गति भी गुह्य है। प्रालब्ध का भी साक्षात्कार प्रैक्टिकल में अभी होना तो है ना। कौन क्या बनेगा और क्यों बनेगा, किस आधार से बनेगा - यह सब स्पष्ट होगा। न चाहते हुये भी, न सोचते हुए भी उनका कर्म, सेवा, चलन, स्थिति, सम्पर्क व सम्बन्ध ऑटोमेटिकली ऐसा ही होता रहेगा जिससे समझ सकेंगे कि कौन क्या बनने वाला है। चलन अर्थात् कर्म ही उनका दर्पण हो जावेगा। कर्म में और दर्पण में हर एक का स्पष्ट साक्षात्कार होता रहेगा। अच्छा! 

इस वाणी का मूल तत्व

1. जैसे ऊँची पहाड़ी पर खड़े होकर नीचे की कोई भी चीज़ को देखो तो बड़ी चीज भी छोटी नजर आती है। इसी प्रकार महारथी के महान् पुरूषार्थ के सामने कोई भी बात बड़ी अनुभव नहीं होगी। अर्थात् सूली काँटा अनुभव होगी। 

2. मास्टर सर्वशक्तिवान् की स्टेज का प्रैक्टिकल स्वरूप - विकर्मों के खाते के साथ-साथ व्यर्थ का खाता भी समाप्त होगा।  

3. महारथी की मुख्य निशानी - उसे कोई भी बात नई नहीं लगेगी। जैसे एक सेकेण्ड की बीती हुई बात बहुत स्पष्ट रूप से स्मृति में रहती है वैसे कल्प पहले की बीती हुई सीन भी स्मृति में होगी। क्योंकि महारथी एक तो साक्षी होगा दूसरा त्रिकालदर्शी होगा।